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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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ज्वालासिंह की प्रशंसा उस रईस की प्रशंसा थी जो अपने कलावन्त के मधुर गान पर मुग्ध हो गया हो। ज्ञानशंकर ने सकुचाते हुए पूछा– साहब क्या कहते थे?

ज्वाला– पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं? मेरी समझ में देहातों के बैंकों के सम्बन्ध में आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।

ज्ञान– (मुस्कराकर) भाई जान, आपसे क्या छिपाएँ। वह टुकड़ा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काँट-छाँट कर नकल कर लिया था। (सावधन होकर) कम-से-कम यह विचार मेरे न थे।

ज्वाला– आपको हवाला देना चाहिए था।

ज्ञान– विचारों पर किसी का अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।

ज्वाला– गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?

ज्ञान– उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती है।

ज्वाला– वाह, क्या कहने! वेतन भी ५०० रु. से कम न होगा।

ज्ञान– वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सकें।

ज्वाला– भैया, अगर वहाँ ३०० रु. भी मिलें तो आप हम लोगों से अच्छे रहेंगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का पुलिन्दा तो सिर पर लादकर न लाना पड़ेगा। वहाँ कब तक जाने का विचार है?

ज्ञान– जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन जब आप गला छोड़ें।

ज्वालासिंह ने बात काटकर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ में भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।

ज्ञान– अच्छा तो भाभी आ गयीं? बड़ा आनन्द रहेगा। कॉलेज में तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?

ज्वाला– अब भी हूँ, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते हैं। अरदली और नौकर से निस्संकोच बाते करती हैं, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खींच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुकाकर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेंगी।

ज्ञान– अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?

ज्वाला– अभी तो आपसे भी झिझकेंगी। हाँ, आपसे दो-चार बार मुलाकात हो, आपके घर की स्त्रियाँ भी आने लगें तो सम्भव है संकोच न रहे। क्यों न मिसेज ज्ञानशंकर को यहाँ भेज दीजिए? गाड़ी भेज दूँगा। आपकी वाइफ को तो कोई आपत्ति न होगी?

ज्ञान– जी नहीं, वह बड़े शौक से आयेंगी।

ज्ञानशंकर को अपने मुकदमें के सम्बन्ध में और कुछ कहने का अवसर न मिला, लेकिन वहाँ से चले तो बहुत खुश थे। स्त्रियों के मेल-जोल से इन महाशय की नकेल मेरे हाथों में आ जायगी। जिस कल को चाहूँ घुमा सकता हूँ। उन्हें अब अपनी सफलता पर कोई संशय न रहा। लेकिन जब घर पर आकर उन्होंने विद्या से यह चर्चा की तो वह बोली, मुझे तो वहाँ जाते झेंप होती है, न कभी की जान-पहचान, न रीति न व्यवहार। मैं वहाँ जाकर क्या बातें करूँगी। गूँगी बनी बैठी रहूँगी। तुमने मुझसे न पूछा न ताछा वादा कर आये!

ज्ञान– मिसेज ज्वालासिंह बड़ी मिलनसार हैं। तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा।

विद्या– अच्छा, और मुन्नी को( छोटी लड़की का नाम था) क्या करूँगी? यह वहाँ रोये-चिल्लाये और उन्हें बुरा लगे तो?

ज्ञान– महरी को साथ लेते जाना। वह लड़की को बाहर बगीचे में बहलाती रहेगी।

विद्या बहुत कहने-सुनने के अन्त में जाने पर राजी हो गयी। प्रातःकाल ज्वालासिंह की गाड़ी आ गयी। विद्या बड़े ठाट से उनके घर गयी। दस बजते-बजते लौटी। ज्ञानशंकर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, कैसी मिलीं?

विद्या– बहुत अच्छी तरह! स्त्री क्या हैं देवी हैं। ऐसी हँसमुख, स्नेहमयी स्त्री तो मैंने देखी ही नहीं। छोड़ती ही न थीं। बहुत जिद की तो आने दिया। मुझे विदा करने लगीं तो उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। मैं भी रो पड़ी। उर्दू, अँगरेजी सब पढ़ी हुई थीं। बड़ा सरल स्वभाव है। महरियों तक को तो तू नहीं कहतीं। शीलमणि नाम है।

ज्ञान– कुछ मेरी भी चर्चा हुई?

विद्या– हाँ, हुई क्यों नहीं? कहती थीं, मेरे बाबू जी के पुराने दोस्त हैं। तुम्हें उस दिन चिक की आड़ से देखा था। तुम्हारी अचकन उन्हें पसन्द नहीं। हँसकर बोली, अचकन क्या पहनते हैं, मुसलमानों का पहनावा है। कोट क्यों नहीं पहनते?

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1 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:33 PM

👏👌👌🙏🏻

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